सत्संग

विश्व में फैली अशांति को दूर करने का उपाय


vishva shanti

Only Then World Peace is Possible…

प्रश्न : स्वामीजी ! आज विश्व में हर कोई आगे भागना चाहता है । रास्ता सही है या गलत – इससे उसको कोई मतलब नहीं । दूसरे को धक्का दे के सिर्फ दौड में आगे पहुँचना है । इससे विश्व में जो अशांति फैल रही है, उसे दूर करने का क्या कोई रास्ता है ?

पूज्य बापूजी : हाँ, रास्ता है । दूसरे को धक्का दे के आगे बढने की अपेक्षा दूसरे को आगे बढाते हुए आगे बढने का रास्ता है । किसीकी टाँग खींचकर आगे बढने, ऊपर उठने के बजाय साथ में आगे बढने से शांति का संबंध है । Every action creates a reaction. हम जो भी करते हैं, वह घूम-फिर के हमारे पास आता है । हम भले विचार करेंगे, भलाई करेंगे तो हमारे चित्त में भले भाव पैदा होंगे । सामनेवाले का अहित सोचेंगे तो उसका अहित हो चाहे न हो लेकिन अहित के विचार से हमारे चित्त में अशांति और धड़कनें बढ़ जाती हैं ।

विश्व में अशांति क्यों है ? क्योंकि शांति का जो मूल है, उसको विश्व भूल गया है और इन्द्रियों को तृप्त करने के पीछे पडा है । मनुष्य जितना विषय-विकारों के पीछे तेजी से भागेगा, उतना ही मन की चंचलता बढ़ेगी, उतना ही झूठ-कपट, धोखाधड़ी करके सुखी रहने की कोशिश करेगा । हकीकत में दूसरे का शोषण या दूसरे को दुःखी करके जो सुखी होने की कोशिश करता है, वह प्राचीनकाल से आसुरी स्वभाववालों की सूची में गिना जाता है । आसुरं भावमाश्रिताः । (गीता : ७.१५) जो आसुर भाव का आश्रय लेते हैं, वे भले बाहर से थोड़े सुखी और सफल दिख जायें थो‹डे दिन के लिए लेकिन उन्हें चित्त की शांति, माधुर्य नहीं मिलता ।

बोले, ‘चित्त की शांति से क्या लाभ होगा ?’ चित्त की शांति से ‘परमात्म-प्रसाद, आत्मसुख’ की प्राप्ति होगी । परमात्म-प्रसाद मतलब बुद्धि को जो संतोष मिलेगा, मन को जो तृप्ति मिलेगी उससे आप जिस किसी व्यवहार में हैं, जिस किसी प्रवृत्ति में हैं सही निर्णय आयेंगे । बहुत सारे रोग, बहुत सारे गलत निर्णय, दुर्घटनाएँ तथा बहुत सारे झगड़’ अशांति के कारण होते हैं । सारे दुःखों का मूल अगर खोजा जाय तो अशांति है और सारे सुखों का मूल परमात्म-शांति है ।

अशान्तस्य कुतः सुखम् । ‘अशांत को सुख कहाँ ?’

शान्तस्य कुतः दुःखम् । ‘शांत को दुःख कहाँ ?

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कथा अमृत

कर्म का विधान….


karma ka vidhan

शुभ कर्म करें चाहे अशुभ कर्म करें, कर्म का फल सबको अवश्य भोगना पड़ता है। महाभारत के युद्ध के बाद की एक घटना है :- भीष्म पितामह शरशय्या पर लेटे हुए थे। महाराज युधिष्ठिर को चिंतित और शोकाकुल देखकर भगवान श्रीकृष्ण उन्हें लेकर पितामह भीष्म के पास गये और बोलेः “पितामह ! युद्ध के पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर बड़े शोकग्रस्त हो गये हैं।
अतः आप इन्हें धर्म का उपदेश देकर इनके शोक का निवारण करें।” तब भीष्म पितामह ने कहाः “आप कहते हैं तो उपदेश दूँगा किंतु हे केशव ! पहले मेरी शंका का समाधान करें। मैं जानता हूँ की शुभाशुभ कर्मों के फल भोगने पड़ते हैं। किंतु इस जन्म में तो मैंने कोई ऐसा कर्म नहीं किया और ध्यान करके देखा तो पिछले 72 जन्मों में भी कोई ऐसा क्रूर कर्म नहीं किया, जिसके फलस्वरूप मुझे बाणों की शय्या पर शयन करना पड़े।”
तब श्रीकृष्ण ने कहाः “पितामह ! आपने पिछले 72 जन्मों तक तो देखा किंतु यदि एक जन्म और देख लेते तो आप जान लेते। पिछले 73 वें जन्म में आपने आक के पत्ते पर बैठे हुए हरे रंग के टिड्डे को पकड़कर उसको बबूल के काँटे भोंके थे। कर्म के विधान के अनुसार वे ही काँटे आज आपको बाण के रूप में मिले हैं।”
देर सवेर कर्म का फल कर्ता को भोगना ही पड़ता है। अतः कर्म करने में सावधान और फल भोगने में प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वरार्पित बुद्धि से सावधान और फल भोगने में प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वरार्पित बुद्धि से किया गया कर्म अंतःकरण को शुद्ध करता है।
आत्मानुभव से कर्ता का कर्तापन ब्रह्म में लय हो जाता है और अपने आपको अकर्ता-अभोक्ता मानने वाला कर्मबंधन से छूट जाता है। उसे ही मुक्तात्मा कहते हैं। अतः कर्ता को ईश्वरार्पित बुद्धि से कर्म करते हुए कर्तापन मिटाते जाना चाहिए। कर्मों से कर्मों को काटते जाना चाहिए।

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एकादशी

इन्दिरा एकादशी : 8 अक्टूबर


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८ अक्टूबर : इंदिरा एकादशी (इसके व्रत से बडे-बडे पापों का नाश तथा नीच योनि में पडे हुए पितरों की सद्गति हो जाती है ।)

युधिष्ठिर ने पूछा : हे मधुसूदन ! कृपा करके मुझे यह बताइये कि आश्विन के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ?

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आश्विन (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार भाद्रपद) के कृष्णपक्ष में ‘इन्दिरा’ नाम की एकादशी होती है । उसके व्रत के प्रभाव से बड़े बड़े पापों का नाश हो जाता है । नीच योनि में पड़े हुए पितरों को भी यह एकादशी सदगति देनेवाली है ।

राजन् ! पूर्वकाल की बात है । सत्ययुग में इन्द्रसेन नाम से विख्यात एक राजकुमार थे, जो माहिष्मतीपुरी के राजा होकर धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते थे । उनका यश सब ओर फैल चुका था ।

राजा इन्द्रसेन भगवान विष्णु की भक्ति में तत्पर हो गोविन्द के मोक्षदायक नामों का जप करते हुए समय व्यतीत करते थे और विधिपूर्वक अध्यात्मतत्त्व के चिन्तन में संलग्न रहते थे । एक दिन राजा राजसभा में सुखपूर्वक बैठे हुए थे, इतने में ही देवर्षि नारद आकाश से उतरकर वहाँ आ पहुँचे । उन्हें आया हुआ देख राजा हाथ जोड़कर खड़े हो गये और विधिपूर्वक पूजन करके उन्हें आसन पर बिठाया । इसके बाद वे इस प्रकार बोले: ‘मुनिश्रेष्ठ ! आपकी कृपा से मेरी सर्वथा कुशल है । आज आपके दर्शन से मेरी सम्पूर्ण यज्ञ क्रियाएँ सफल हो गयीं । देवर्षे ! अपने आगमन का कारण बताकर मुझ पर कृपा करें ।

नारदजी ने कहा : नृपश्रेष्ठ ! सुनो । मेरी बात तुम्हें आश्चर्य में डालनेवाली है । मैं ब्रह्मलोक से यमलोक में गया था । वहाँ एक श्रेष्ठ आसन पर बैठा और यमराज ने भक्तिपूर्वक मेरी पूजा की । उस समय यमराज की सभा में मैंने तुम्हारे पिता को भी देखा था । वे व्रतभंग के दोष से वहाँ आये थे । राजन् ! उन्होंने तुमसे कहने के लिए एक सन्देश दिया है, उसे सुनो । उन्होंने कहा है: ‘बेटा ! मुझे ‘इन्दिरा एकादशी’ के व्रत का पुण्य देकर स्वर्ग में भेजो ।’ उनका यह सन्देश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ । राजन् ! अपने पिता को स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने के लिए ‘इन्दिरा एकादशी’ का व्रत करो ।

राजा ने पूछा : भगवन् ! कृपा करके ‘इन्दिरा एकादशी’ का व्रत बताइये । किस पक्ष में, किस तिथि को और किस विधि से यह व्रत करना चाहिए ।

नारदजी ने कहा : राजेन्द्र ! सुनो । मैं तुम्हें इस व्रत की शुभकारक विधि बतलाता हूँ । आश्विन मास के कृष्णपक्ष में दशमी के उत्तम दिन को श्रद्धायुक्त चित्त से प्रतःकाल स्नान करो । फिर मध्याह्नकाल में स्नान करके एकाग्रचित्त हो एक समय भोजन करो तथा रात्रि में भूमि पर सोओ । रात्रि के अन्त में निर्मल प्रभात होने पर एकादशी के दिन दातुन करके मुँह धोओ । इसके बाद भक्तिभाव से निम्नांकित मंत्र पढ़ते हुए उपवास का नियम ग्रहण करो :

अघ स्थित्वा निराहारः सर्वभोगविवर्जितः ।
श्वो भोक्ष्ये पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवाच्युत ॥

‘कमलनयन भगवान नारायण ! आज मैं सब भोगों से अलग हो निराहार रहकर कल भोजन करुँगा । अच्युत ! आप मुझे शरण दें |’

इस प्रकार नियम करके मध्याह्नकाल में पितरों की प्रसन्नता के लिए शालग्राम शिला के सम्मुख विधिपूर्वक श्राद्ध करो तथा दक्षिणा से ब्राह्मणों का सत्कार करके उन्हें भोजन कराओ । पितरों को दिये हुए अन्नमय पिण्ड को सूँघकर गाय को खिला दो । फिर धूप और गन्ध आदि से भगवान ह्रषिकेश का पूजन करके रात्रि में उनके समीप जागरण करो । तत्पश्चात् सवेरा होने पर द्वादशी के दिन पुनः भक्तिपूर्वक श्रीहरि की पूजा करो । उसके बाद ब्राह्मणों को भोजन कराकर भाई बन्धु, नाती और पुत्र आदि के साथ स्वयं मौन होकर भोजन करो ।

राजन् ! इस विधि से आलस्यरहित होकर यह व्रत करो । इससे तुम्हारे पितर भगवान विष्णु के वैकुण्ठधाम में चले जायेंगे ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! राजा इन्द्रसेन से ऐसा कहकर देवर्षि नारद अन्तर्धान हो गये । राजा ने उनकी बतायी हुई विधि से अन्त: पुर की रानियों, पुत्रों और भृत्योंसहित उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया ।

कुन्तीनन्दन ! व्रत पूर्ण होने पर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी । इन्द्रसेन के पिता गरुड़ पर आरुढ़ होकर श्रीविष्णुधाम को चले गये और राजर्षि इन्द्रसेन भी निष्कण्टक राज्य का उपभोग करके अपने पुत्र को राजसिंहासन पर बैठाकर स्वयं स्वर्गलोक को चले गये । इस प्रकार मैंने तुम्हारे सामने ‘इन्दिरा एकादशी’ व्रत के माहात्म्य का वर्णन किया है । इसको पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।

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संस्कार सिंचन

बच्चे बनेंगे प्रतिभाशाली


 

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बाल्यावस्था में ग्रहणशीलता अत्यधिक होती है | जो भी संस्कार उस अवस्था में दिये जायें, सब सहज में ह्रदय में घर कर जाते है | इस अवस्था में बच्चों की स्मरणशक्ति को तीव्र बनाने के लिये उन्हें श्लोक, गिनती आदि कंठस्थ कराये जाते हैं | किसी विशेष विषय में बच्चों का अधिक ध्यान दिलाया जाय तो उस विषयसंबंधी ज्ञानतंतु विकसित होने लगते हैं | ज्ञानतंतु सुषुप्त रहते हैं, उन्हें यौगिक क्रियाओं द्वारा जागृत किया जाता है | इसलिए जप या अन्य किसी योगाभ्यास द्वारा कोई शारीरिक या मानसिक क्रिया करते हैं तो उसका आपके विशेष केन्द्रबिंदु से सम्पर्क होता है | इससे उस केन्द्र का विकास होने लगता है, जिसे हम ‘ प्रज्ञा ’ कहते हैं |
अजपा – जप एक बहुत ही सरल एवं शक्तिशाली क्रिया है | शास्त्रों में बहुत प्राचीन समय से ही अजपा की साधना को बतलाया गया है | अजपा एक सहज साधना है, केवल इसे जगाना है | संत कबीरजी लिखते हैं :
सहज सहज सब कोइ कहै, सहज न चीन्है कोय |
जा सहजै विषया तजै, सहज कहावै सोय ||

पूज्य बापूजी द्वारा बतायी गयी श्वासोच्छ्वास की साधना भी विद्यार्थियों के लिये परम हितकारी है | पूज्य बापूजी कहते हैं : “श्वासोच्छ्वास की साधना करो, श्वास अंदर जाय तो ‘ॐ’ , बाहर आये तो गिनती | इससे श्वास तालबद्ध होंगे | बुद्धि बलवान होगी व मन को नियंत्रण में कर लेगी, इन्द्रिय – संयम रहेगा और संयम से अंतरात्मा का सुख मिलेगा, मन प्रसन्न रहेगा, बुद्धि में ज्ञान आयेगा |”
श्वासोच्छ्वास की गिनती या अजपा – जप से चेतना का विकास होता है और आत्मचेतना के विकास से सुख व सफलता की प्राप्ति होती है |
स्त्रोत – लोककल्याण सेतु – अप्रैल २०१५ से

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Satsang

पुजारी बना प्रेत


Sant ki sewa

उड़िया बाबा बड़ी ऊँची कमाई के धनी थे। अखंडानंदजी सरस्वती उनके प्रति बहुत श्रद्धा रखते थे। वे आपस में चर्चा भी किया करते थे।
उड़िया बाबा ने एक दिन सुबह एक मृत पुजारी को सामने खड़े देखकर पूछाः “अरे, बाँके बिहारी के पुजारी ! तू तो मर गया था। तू सुबह-सुबह इधर यमुना किनारे कैसे आया?”
उसने कहाः “बाबा ! मैं आपसे प्रार्थना करने आया हूँ। मैं मर गया हूँ और संकल्प से आपको दिख रहा हूँ। मैं प्रेत शरीर में हूँ। मेरे घरवालों को बुलाना और जरा बताना कि उन्हें सुखी करने के लिए मोहवश मैंने ठाकुरजी के पैसे चुराकर घर में रखे थे। धर्मादा के पैसे चुराये इसलिए मंदिर का पुजारी होते हुए भी मेरी सदगति नहीं हुई। मैं आपसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ कि मेरे बेटे से कहिए कि फलानी जगह पर थोड़े-से पैसे गड़े हैं, उन्हें अच्छे काम में लगा दे और बाँकेबिहारी के मंदिर के पैसे वापस कर दे ताकि मेरी सदगति हो सके।”
कर्म किसी का पीछा नहीं छोड़ते। था तो मंदिर का पुजारी, किंतु अपने दुष्कर्म के कारण उसे प्रेत होना पड़ा !
सूरत (गुजरात) में सन् 1995 के जन्माष्टमी के ‘ध्यान योग साधना शिविर’ में कुछ लोफरों ने आश्रम के बाहर चाय की लारी से किसी महाराज का फोटो उतारा। फिर भक्तों से कहाः “तुम लोग हरि ॐ…. हरि ॐ… करते हो। तुम्हारे बापूजी हमारा क्या कर लेंगे?” और फोटो के ऊपर कीचड़वाले पैर रखकर नाचे।
शाम को उन्हें लकवा मार गया, रात को मर गये और दूसरे दिन श्मशान में पहुँच गये।
बुरा कर्म करते समय तो आदमी कर डालता है, लेकिन बाद में उसका परिणाम कितना भयंकर आता है इसका पता ही नहीं चलता उस बेचारे को।
जैसे दुष्कृत्य उसके कर्ता को फल दे देता है, ऐसे ही सुकृत भी भगवत्प्रीत्यर्थ कर्म करने वाले कर्ता के अंतःकरण को भगवद्ज्ञान, भगवद् आनंद एवं भगवद् जिज्ञासा से भरकर भगवान का साक्षात्कार करा देता है।

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