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I am a Sadhak of Pujya Sant Shri Asharamji Bapu (मै पूज्य संत श्री आशारामजी बापू का साधक हूँ )


मै पूज्य संत श्री आशारामजी बापू का साधक हूँ

I am a Sadhak of Pujya Sant Shri Asharamji Bapu

 

Is it possible to live without cold drinks, is it possible to live without tea/ coffee? Is it possible to live without facial creams, make up ? Is it possible to live without drinking, partying, smoking in this 21st Century ?  Yes It became possible due to Sant Shri Asaram Ji Bapu. Lakhs of Youth got transformed by HIM.

क्या शीतल पेय के बिना रहना संभव है, चाय / कॉफी के बिना जीना संभव है? क्या चेहरे की क्रीम के बिना जीना संभव है, श्रृंगार? क्या 21 वीं शताब्दी में पीने, पार्टी करना, धूम्रपान करने से बचना संभव है? हाँ, संत श्री आसाराम जी बापू की वजह से यह संभव हो गया। लाखों युवकों को उनके द्वारा बदल दिया गया।

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Shri Rama Bhai

Shree Ramabhai Satsang 26th Jan, 28th Jan, 29th Jan


 

ramabhai_28-29_jan

Ramabhai Satsang Hariyan & U.P.

 

Ramabhai Satsang

Ramabhai Satsang

Shree Ramabhai Satsang
26th Jan, 28th Jan, 29th Jan
Sant Shri Asharamji Bapu Ashram
Fatehabad (Hariyana) & Hisar (Hariyana)
Faridabad ((Hariyana) & Firozabad (U.P.)

https://twitter.com/ShreeRamaBhai

https://www.facebook.com/SriRamaBhai

 

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Sadhvi Pooja Bahan

साध्वी पूजा बहन जी का सत्संग कलकत्ता (प.बंगाल) 26 सितम्बर


26 septपूज्य संत श्री आशाराम बापू जी के आत्मसाक्षात्कार के उपलक्ष्य पर

साध्वी पूजा बहन जी का सत्संग कार्यक्रम :-

संत श्री आशाराम आश्रम, कलकत्ता (प.बंगाल)
Date- २६ सितम्बर २०१४ .  समय :- सुबह १० बजे से
स्थान :- संत श्री आशारामजी आश्रम,नेताजी सुभाषचंद्र इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, पंचपोटा, पुलिस पारा, गरिया, कलकत्ता (प.बंगाल).
संपर्क :- 9339053916, 9330587991.

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Satshishya ke lakshan

Sant Asharamji Bapu se ek mulakat

एक बार की बात है जब हृदय भावों से भर गया और प्रेम उमड़ पड़ा, मैंने (संत श्री आशाराम जी बापू ने ) गुरुजी (साईं लीलाशाह जी महाराज) के पैर पकड़कर कहा: ‘‘गुरुजी! मुझे कुछ सेवा करने की आज्ञा दीजिये।’’

गुरुजी: ‘‘सेवा करेगा? जो कहूँगा वह करेगा?’’
मैंने कहा: ‘‘हाँ गुरुजी! आज्ञा कीजिये, आज्ञा कीजिये।’’
गुरुजी: ‘‘जो माँगूँ वह देगा?’’
मैंने कहा: ‘‘हाँ गुरुजी! जरूर दूँगा।’’
गुरुजी शांत हो गये। कुछ क्षणों बाद गुरुजी ने पुनः कहा: ‘‘जो माँगूँ वह देगा?’’
मैंने कहा: ‘‘हाँ गुरुजी!’’

गुरुजी: ‘‘तू आत्मज्ञान पाकर मुक्त हो जा और दूसरों को भी मुक्त करते रहना, इतना ही दे दे।’’ सद्गुरु की कितनी महिमावंत दृष्टि होती है! हम लोगों को मन में होता है कि ‘गुरुजी शायद यह न माँग लें, वह न माँग लें…’ अरे, सब कुछ देने के बाद भी अगर सद्गुरु-तत्त्व हजम होता है तो सौदा सस्ता है।

न जाने कितनी बार किन-किन चीजों के लिए हमारा सिर चला गया! एक बार और सही। …और वे सद्गुरु यह पंचभौतिक सिर नहीं लेते, वे तो हमारी मान्यताओं का, कल्पनाओं का सिर ही ले लेते हैं ताकि हम भी परमात्मा के दिव्य आनंद का, प्रेम का, माधुर्य का अनुभव कर सकें।

गुरुजी ने नाम रखा है- ‘आशाराम’। हम आपकी हजार-हजार बातें इसी आश से मानते आये हैं, हजार-हजार अंगड़ाइयाँ इसी आस से सह रहे हैं कि आप भी कभी-न-कभी हमारी बात मान लोगे। और मेरी बात यही है कि तत्त्वमसि- ‘तुम वही हो।’ सदैव रहनेवाला तो एक चैतन्य आत्मा ही है। वही तुम्हारा अपना-आपा है, उसी में जाग जाओ। मेरी यह बात मानने के लिए तुम भी राजी हो जाओ।

पहले मेरे आश्रम में जब लोग आते थे को भक्तों को लगता था कि ‘आहाहा… बापूजी को कितनी मौज है! कितनी फूलमालाएं! लाखों लोगों के सिर झुक रहे हैं… हजारों-हजारों मिठाइयां आ रही हैं… बापूजी को तो मौज होगी!’ ना-ना… इन चीजों के लिए हम बापूजी नहीं हुए हैं, इन चीजों के लिए हम हिमालय का एकांत छोड़कर बस्ती में नहीं आये थे ।

फिर भी तुम्हारा दिल रखने के लिए… तुमको जो आनंद हो रहा था, जो लाभ हो रहा था उसकी अभिव्यक्ति तुम करते थे, जो कुछ तुम देते थे, वह देते-देते तुम अपना ‘अहं’ भी दे डालो इस आशा से हम तुम्हारे फल-फूल आदि स्वीकार करते थे।

तुम मेरे द्वार पर आते हो तो मेरी बात भी तो माननी पड़ेगी। गुरु की बात यही है कि तुम्हारी जो जात-पात है वह हमको दे दो, तुम फलाने नाम के भाई या माई हो वह दे दो और मेरे गुरुदेव का प्रसाद ‘ब्रह्मभाव’ तुम ले लो। फिर देखो, तुम विश्वनियंता के साथ एकाकार होते हो कि नहीं।

जिसको सच्ची प्यास होती है वह प्याऊ खोज ही लेता है, फिर उसके लिए मजहब, मत-पंथ, वाद-सम्प्रदाय नहीं बचता है। प्यासे को पानी चाहिए। ऐसे ही यदि तुम्हें परमात्मा की प्यास है और तुम जिस मजहब, मत-पंथ में हो, उसमें यदि प्यास नहीं बुझती है तो उस बाड़े को तोड़कर किन्हीं ब्रह्मज्ञानी महापुरुष तक पहँच जाओ। शर्त यही है कि प्यास ईमानदारीपूर्ण होनी चाहिए, ईमानदारीपूर्ण पुकार होनी चाहिए।

तुम्हें जितनी प्यास होगी, काम उतना जल्दी होगा। यदि प्यास नहीं होगी तो प्यास जगाने के लिए संतों को परिश्रम करना पड़ेगा और जेल आने की लीला भी करनी पड़ी तो कर ली और संतों का परिश्रम तुम्हारी प्यास जगाने में हो, इसकी अपेक्षा जगी हुई प्यास को तृप्ति प्रदान करने में हो तो काम जल्दी होगा। इसीलिए तुम अपने भीतर झांक-झांककर अपनी प्यास जगाओ ताकि वे ज्ञानामृत पिलाने का काम जल्दी से शुरू कर दें। वक्त बीता जा रहा है। न जाने कब, कहाँ, कौन चल दे कोई पता नहीं।

तुमको शायद लगता होगा कि तुम्हारी उम्र अभी दस साल और शेष है लेकिन मुझे पता नहीं कि कल के दिन मैं जिऊंगा कि नहीं। मुझे इस देह का भरोसा नहीं है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि इस देह के द्वारा गुरु का कार्य जितना हो जाय, अच्छा है। गुरु का प्रसाद जितना बंट जाय, अच्छा है और मैं बाँटने को तत्पर भी रहता हूँ।

अभी जेल में हु फिर भी आपके ही हित का सोचता रहता हूँ।

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तुम सोचते होगे कि ‘बापू थक गये हैं।’ ना, मैं नहीं थकता हूँ। तुम सोचते होगे कि ‘बापू बीमार हो गए है |” ना, मै बीमार नहीं हूँ | तुम सोचते होगे कि ‘बापू वृद्ध हो गए है |” ना, मै वृद्ध नहीं हुआ हूँ | मैं देखता हूँ कि तुम्हारे अंदर कुछ जगमगा रहा है। मैं निहारता हूँ कि तुम्हारे अंदर ईश्वरीय नूर झलक रहा है। कितनी मुसीबत सहेकर जेल और कोर्ट दर्शन करने आतें हो, कितना मेरी एक जलक पाने को तरसते रहते हो ! मै सब देख रहा हूँ, कौन कितना मेरे लिए तड़प रहा है ! आपकी तड़प को देखकर ही मेरी थकान उतर जाती है। और तुमको श्रद्धा और तत्परता से युक्त पाता हूँ तो मैं ताजा हो जाता हूँ और ताजे-का-ताजा दिखता हूँ… आशाराम (बापूजी) की केवल यही आशा से कि ताजे-में-ताजा जो परमात्मा है, जिसको कभी थकान नहीं लगती है, उस चैतन्यस्वरूप आत्मा में तुम भी जाग जाओ। ॐ ॐ ॐ हरि ॐ ॐ ॐ

 

कौन कहते हैं भगवान आते नहीं
भक्त मीरा के जैसे बुलाते नहीं।
कौन कहते हैं भगवान सोते नहीं
मां यशोदा के जैसे सुलाते नहीं।
कौन कहते हैं भगवान खाते नहीं।
बेर भक्त शबरी के जैसे खिलाते नही
कौन कहते हैं भगवान सुनते नहीं।
सखा अर्जुन की तरह तुम सुनाते नहीं।
कौन कहते है भगवान दुःख हरते नहीं
बहन द्रोपदी के जैसे बुलाते नहीं।
कौन कहते हैं भगवान प्यार जानते नहीं
गोपियों की तरह तुम नचाते नहीं

कौन कहते है बापू बाहर आतें नहीं ?

सत्-शिष्य की तरह आप पुकारतें नहीं |

 

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पूज्य बापूजी से एक मुलाकात:

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संत वाणी

ये सब चमार हैं…


जनक जी एक धर्मी राजा थे| उनका राज मिथिलापुरी में था| वह एक सद्पुरुष थे| न्यायप्रिय और जीवों पर दया करते थे| उनके पास एक शिव धनुष था| वह उस धनुष की पूजा किया करते थे| आए हुए साधू-संतों को भोजन खिलाकर स्वयं भोजन करते थे|

लेकिन एक दिन एक महात्मा ने राजा जनक को उलझन में डाल दिया| उस महात्मा ने राजा जनक से पूछा-हे राजन! आप ने अपना गुरु किसे धारण किया है?

यह सुन कर राजा सोच में पड़ गया| उसने सोच-विचार करके उत्तर दिया-हे महांपुरुष! मुझे याद है कि अभी तक मैंने किसी को गुरु धारण नहीं किया| मैं तो शिव धनुष की पूजा करता हूं|

यह सुनकर उस महात्मा ने राजा जनक से कहा-राजन! आप गुरु धारण करो| क्योंकि इसके बिना जीवन में कल्याण नहीं हो सकता और न ही इसके बिना भक्ति सफल हो सकती है| आप धर्मी एवं दयावान हैं|

‘सत्य वचन महाराज|’ राजा जनक ने उत्तर दिया और अपना गुरु धारण करने के लिए मन्त्रियों से सलाह-मशविरा किया| तब यह फैसला हुआ कि एक विशाल सभा बुलाई जाए| उस सभा में सारे ऋषि, मुनि, पंडित, वेदाचार्य बुलाए जाएं| उन सब में से ही गुरु को ढूंढा जाए|

सभा बुलाई गई| सभी देशो में सूझवान पंडित, विद्वान और वेदाचार्य आए| राजा जनक का गुरु होना एक महान उच्च पदवी थी, इसलिए सभी सोच रहे थे कि यह पदवी किसे प्राप्त हो, किसको राजा जनक का गुरु बनाया जाए| हर कोई पूर्ण तैयारी के साथ आया था| सभी विद्वान आ गए तो राजा जनक ने उठकर प्रार्थना कि ‘हे विद्वान और ब्राह्मण जनो! यह तो आप सबको ज्ञात ही होगा कि यह सभा मैंने अपना गुरु धारण करने के लिए बुलाई है| परन्तु मेरी एक शर्त यह है कि मैं उसी को अपना गुरु धारण करना चाहता हूं जो मुझे घोड़े पर चढ़ते समय रकाब के ऊपर पैर रखने पर काठी पर बैठने से पूर्व ही ज्ञान कराए| इसलिए आप सब विद्वानों, वेदाचार्यों और ब्राह्मणोंमें से अगर किसी को भी स्वयं पर पूर्णत: विश्वास है तो वह आगे आए| आगे आ कर चन्दन की चौकी पर विराजमान हो पर यदि चन्दन की चौकी पर बैठ कर मुझे ज्ञान न करा सका तो उसे दण्डमिलेगा| क्योंकि सभा में उस की सबने हंसी उड़ानी है और इससे मेरी भी हंसी उड़ेगी| इसलिए मैं सबसे प्रार्थना करता हूं कि योग्य बल बुद्धि वाला सज्जन ही आगे आए|

यह प्रार्थना करके धर्मी राजा जनक अपने आसान पर बैठ गया| सभी विद्वान और ब्राह्मण राजा जनक की अनोखी शर्त सुनकर एक दूसरे की तरफ देखने लगे| अपने-अपने मन में विचार करने लगे कि ऐसा कौन-सा तरीका है जो राजा जनक को इतने कम समय में ज्ञान करा सके| सब के दिलों-दिमाग में एक संग्राम शुरू हो गया| सारी सभा में सन्नाटा छा गया| राजा जनक का गुरु बनना मान्यता और आदर हासिल करना, सब सोचते और देखते रहे| चन्दन की चौकी की ओर कोई न बढ़ा| यह देखकर राजा जनक को चिंता हुई| वह सोचने लगा कि उसके राज्य में ऐसा कोई विद्वान नहीं? राजा ने खड़े हो कर सभा में उपस्थित हर एक विद्वान के चेहरे की ओर देखा| लेकिन किसी ने आंख न मिलाई| राजा जनक बड़ा निराश हुआ|

कुछ पल बाद एक ब्राह्मण उठा, उसका नाम अष्टावकर था| जब वह उस चन्दन की चौकी की ओर बढ़ने लगा तो उसकी शारीरिक संरचना देखकर सभी विद्वान और ब्राह्मण हंस पड़े| राजा भी कुछ लज्जित हुआ| उस ब्राह्मण की कमान पर दो बल थे| छाती आगे को और पेट पीछे को गया हुआ था| टांगें टेढ़ी थीं और हाथों का तो क्या कहना, एक पंजा है ही नहीं था तथा दूसरे पंजे की उंगलियां जुड़ी हुई थीं| जुबान चलती थी और आंखें तथा चेहरा भी ठीक नहीं था| वह आगे होने लगा तो मंत्री ने उसको रोका और कहा-पुन: सोच लीजिए! राजा जनक की संतुष्टि न हुई तो मृत्यु दण्ड मिलेगा| यह कोई मजाक नहीं है, यह राजा जनक की सभा है|

अष्टावकर बोला-हे मन्त्री! यह बात आपको कहने का इसलिए साहस पड़ा है क्योंकि मैं शरीर से कुरुप दिखता हूं| हो सकता है गरीब और बेसहारा हूं| आपके मन में भी यह भ्रम आया होगा कि मैं शायद लालच के कारण आगे आने लगा हूं| इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे इस भरी सभा में कोई ज्ञानी नहीं, कोई राजा का गुरु बनने की योग्यता नहीं रखता, वैसे आप भी अज्ञानी हो| आप ने अपने जैसे अज्ञानियों को ही बुलाया है| पर मैं सभी से पूछता हूं क्या ज्ञान का सम्बन्ध आत्मा और दिमाग के साथ है या किसी के शरीर के साथ? जो सुन्दर शरीर वाले, तिलक धारी, ऊंची कुल और अच्छे वस्त्रों वाले बैठे हैं, वह आगे क्यों नहीं आते? सभी सोच में क्यों पड़ गए हो?  मेरे शरीर की तरफ देख कर हंसते हुए शर्म नहीं आती, क्योंकि शरीर ईश्वर की रचित माया है| उसने अच्छा रचा है या बुरा| जिसको तन का अभिमान है, उसको ज्ञान अभिमान नहीं हो सकता, अष्टावकर गुस्से से बोला| उसकी बातें सुन कर सभी तिलकधारी राज ब्राह्मण शर्मिन्दा हो गए| उन सब को अपनी भूल पर पछतावा हुआ|

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