(श्रीरामचरितमानस, सुन्दरकांड)

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राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम !

हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ।।

 हनुमानजी ने मैनाक पर्वत को हाथों से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा – भाई ! श्रीरामचन्द्रजी का काम किये बिना मुझे विश्राम कहाँ?

श्री राम नवमी : 10 March

तो जिस प्रकार श्री राम के कार्य को पूर्ण किये बिना हनुमान जी को विश्राम भाता नहीं, उसी तरह हम साधकों का भी यही दृड़ निश्चय होना चाहिए कि गुरुदेव हमें जिस परम लक्ष्य तक पंहुचाना चाहते हैं, हम उसे पाए बिना रुके नहीं और कहीं विश्राम के लिए रुके नहीं ! हनुमान जी के जीवन चरित्र से प्रेरणा लेते हुए हमें भी इसी तरह नित-निरंतर आगे बढ़ते रहना चाहिए !

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Festival

श्री राम नवमी

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नवरात्रि विशेष, पर्व विशेष

Happy Chaitra Navratri


Chaitra Navratri

नवरात्रि में शुभ संकल्पों को पोषित करने, रक्षित करने और शत्रुओं को मित्र बनाने वाले मंत्र की सिद्धि का योग होता है। वर्ष में दो नवरात्रियाँ आती हैं। शारदीय नवरात्रि और चैत्री नवरात्रि। चैत्री नवरात्रि के अंत में रामनवमी आती है और दशहरे को पूरी होने वाली नवरात्रि के अंत में राम जी का विजय-दिवस विजयादशमी आता है। एक नवरात्रि के आखिरी दिन राम जी प्रागट्य होता है और दूसरी नवरात्रि आती तब रामजी की विजय होती है, विजयादशमी मनायी जाती है। इसी दिन समाज को शोषित करने वाले, विषय-विकार को सत्य मानकर रमण करने वाले रावण का श्रीरामजी ने वध किया था।

नवरात्रि को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है। इसमें पहले तीन दिन तमस को जीतने की आराधना के हैं। दूसरे तीन दिन रजस् को और तीसरे दिन सत्त्व को जीतने की आराधना के हैं। आखिरी दिन दशहरा है। वह सत्त्व-रज-तम तीन गुणों को जीत के जीव को माया के जाल से छुड़ाकर शिव से मिलाने का दिन है। शारदीय नवरात्रि विषय-विकारों में उलझे हुए मन पर विजय पाने के लिए और चैत्री नवरात्रि रचनात्मक संकल्प, रचनात्मक कार्य, रचनात्मक जीवन के लिए, राम-प्रागट्य के लिए हैं।

नवरात्रि के प्रथम तीन दिन होते हैं माँ काली की आराधना करने के लिए, काले (तामसी) कर्मों की आदत से ऊपर उठने के लिए लिए। पिक्चर देखना, पानमसाला खाना, बीड़ी-सिगरेट पीना, काम-विकार में फिसलना – इन सब पाशविक वृत्तियों पर विजय पाने के लिए नवरात्रि के प्रथम तीन दिन माँ काली की उपासना की जाती है।

दूसरे तीन दिन सुख-सम्पदा के अधिकारी बनने के लिए हैं। इसमें लक्ष्मी जी की उपासना होती है। नवरात्रि के तीसरे तीन दिन सरस्वती की आराधना-उपासना के हैं। प्रज्ञा तथा ज्ञान का अर्जन करने के लिए हैं। हमारे जीवन में सत्-स्वभाव, ज्ञान-स्वभाव और आनन्द-स्वभाव का प्रागट्य हो। बुद्धि व ज्ञान का विकास करना हो तो सूर्यदेवता का भ्रूमध्य में ध्यान करें। विद्यार्थी सारस्वत्य मंत्र का जप करें। जिनको गुरुमंत्र मिला है वे गुरुमंत्र का, गुरुदेव का, सूर्यनारायण का ध्यान करें।

आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तिथि तक का पर्व शारदीय नवरात्रि के रूप में जाना जाता है। यह व्रत-उपवास, आद्यशक्ति माँ जगदम्बा के पूजन-अर्चन व जप-ध्यान का पर्व है। यदि कोई पूरे नवरात्रि के उपवास-व्रत न कर सकता हो तो सप्तमी, अष्टमी और नवमी तीन दिन उपवास करके देवी की पूजा करने से वह सम्पूर्ण नवरात्रि के उपवास के फल को प्राप्त करता है। देवी की उपासना के लिए तो नौ दिन हैं लेकिन जिन्हें ईश्वरप्राप्ति करनी है उनके लिए तो सभी दिन हैं।

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Saraswati Devi Maa

किसी जानवर की तस्वीर, या डूबती नाव की तस्वीर घर की दीवाल पर लटका के रखना अशुभ होता है |

इसके बदले संतो का चित्र , भगवान का चित्र रखने से मन प्रसन्न और सात्विक रहेता है |

 

आज माँ सरस्वती देवी का पूजन दिवस है |

माँ सरस्वती की आराधना करने के लिए श्लोक है-

सरस्वती शुक्ल वर्णासस्मितांसुमनोहराम।

कोटिचन्द्रप्रभामुष्टश्री युक्त विग्रहाम।

वह्निशुद्धांशुकाधानांवीणा पुस्तक धारिणीम्।

रत्नसारेन्द्रनिर्माण नव भूषण भूषिताम।

सुपूजितांसुरगणैब्रह्म विष्णु शिवादिभि:।

वन्दे भक्त्यावन्दितांचमुनीन्द्रमनुमानवै:।
– (देवीभागवत )

नवरात्रि विशेष

जानवर का चित्र घर पर रखना अशुभ

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Durga Pooja, Navratri

नवरात्र एवं दुर्गा पूजा


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नवरात्र का उत्सव प्रार्थना और उल्लास के साथ मनाया जाता है। दुर्गा पूजा के तीसरे दिन आदि-शक्ति दुर्गा के तृतीय स्वरूप मां चंद्रघंटा की पूजा होती है। देवी चन्द्रघण्टा भक्त को सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली हैं। इस दिन का दुर्गा पूजा में विशेष महत्व बताया गया है तथा इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन किया जाता है। मां चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक एवं दिव्य सुगंधित वस्तुओं के दर्शन तथा अनुभव होते हैं, इस दिन साधक का मन मणिपूर चक्र में प्रविष्ट होता है यह क्षण साधक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं।

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चंद्रघंटा- नवरात्री की तीसरे दिन चन्द्रघंटा देवी का स्वरूप तपे हुए स्वर्ण के समान कांतिमय है। चेहरा शांत एवं सौम्य है और मुख पर सूर्यमंडल की आभा छिटक रही होती है। माता के सिर पर अर्ध चंद्रमा मंदिर के घंटे के आकार में सुशोभित हो रहा जिसके कारण देवी का नाम चन्द्रघंटा हो गया है। अपने इस रूप से माता देवगण, संतों एवं भक्त जन के मन को संतोष एवं प्रसन्नता प्रदान करती हैं। मां चन्द्रघंटा अपने प्रिय वाहन सिंह पर आरूढ़ होकर अपने दस हाथों में खड्ग, तलवार, ढाल, गदा, पाश, त्रिशूल, चक्त्र,धनुष, भरे हुए तरकश लिए मंद मंद मुस्कुरा रही होती हैं | माता का ऐसा अदभुत रूप देखकर ऋषिगण मुग्ध होते हैं और वेद मंत्रों द्वारा देवी चन्द्रघंटा की स्तुति करते हैं।

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मां चन्द्रघंटा की कृपा से समस्त पाप और बाधाएं विनष्ट हो जाती हैं। समस्त भक्त जनों को देवी चंद्रघंटा की वंदना करते हुए कहना चाहिए या देवी सर्वभूतेषु चन्द्रघंटा रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: अर्थात देवी ने चन्द्रमा को अपने सिर पर घण्टे के सामान सजा रखा है उस महादेवी, महाशक्ति चन्द्रघंटा को मेरा प्रणाम है, बारम्बार प्रणाम है| इस प्रकार की स्तुति एवं प्रार्थना करने से देवी चन्द्रघंटा की प्रसन्नता प्राप्त होती है। देवी का रूप प्रकृति की तरह रहस्यपूर्ण है। यह जीवन में ऐश्वर्य एवं प्रसन्नता देने वाला है। मां भगवती ऐसा वट वृक्ष हैं, जिसे जीवन की हर वेला, अपने हर रूप में फैलती है। देवी को प्रकृति रूप में भी माना जाता है। अगर धरती मां के रूप में वे भूमि है तो वे हिमालय पुत्री गंगा भी हैं। अपने इन रूपों में वे धरती पर आकर मानव मात्र को दुखों से मुक्त करती हैं। वे मनुष्य को पाप-दोष से निजात दिलाकर ज्ञान देती हैं।

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ममतामयी मां दुर्गा अपने भक्तों की प्रर्थना, अपने बच्चों की पुकार अति शीघ्र सुनती हैं। वे इस सृष्टि की पालनहार हैं। वे ही संहारिणी हैं। वे सर्वस्व प्रदान करने वाली हैं | मातृ-शक्ति (देवी) अथवा विशुद्ध चेतना समस्त रूपाकारों में व्याप्त है। प्रत्येक नाम और प्रत्येक रूप में एक ही चेतना को पहचानना नवरात्र का उत्सव है। यह अवधि आत्म-संप्रेषण और मूल की ओर वापस जाने का समय है। कायाकल्प के इस समय में प्रकृति पुराने को झाड़-पोंछ कर अपना नवीनीकरण करती है। वेदांत कहता है कि पदार्थ अपने को बारंबार पुन: रचने के लिए अपने मूल स्वरूप में वापस चला जाता है। रचना चक्रीय होती है, रैखिक नहीं। नवीनीकरण की सतत प्रक्रिया में प्रत्येक वस्तु की पुन:निर्मिति होती है। लेकिन मानव चेतना सृष्टि के इस नित्यक्रम में पिछड़ी रह जाती है। नवरात्र का त्योहार हमारे लिए अपनी चेतना को उसके मूल पर वापस ले जाना संभव बनाता है। उपवास, प्रार्थना, मौन और ध्यान के द्वारा भक्त चेतना के मूल तक पहुंच जाता है। अस्तित्व के तीन स्तरों पर यह हमें राहत पहुंचाता है- भौतिक, सूक्ष्म तथा कारणात्मक।

नवरात्रि पर हम उपवास और ध्यान करते हैं। उपवास शरीर को विष-मुक्त करता है, मन वाणी को शुद्ध करके मस्तिष्क को आराम पहुंचाता है और ध्यान आपको अपने अस्तित्व के भीतर की गहराई में ले जाता है। भीतर की यात्रा हमारे नकारात्मक कर्मो को निर्मूल करती है। नवरात्र पर्व आत्मा या प्राणों का एक उत्सव है, जो जड़ता रूपी भस्मासुर, दुराग्रह रूपी रक्तबीज, विवेकहीन तर्क रूपी चंड-मुंड और धूमिल दृष्टि रूपी धूम्रालोचन को जीवनी शक्ति की ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठाकर काबू करता है।

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नवरात्र के नौ दिन ब्रह्मांड की आदि त्रिगुणात्मकता के उत्सव का भी एक अवसर है। हमारा जीवन तीन गुणों से संचालित होता है, लेकिन हम उनको शायद ही कभी पहचानते हैं। नवरात्र के पहले तीन दिन ‘तमो गुण’ के हैं, अगले तीन दिन ‘रजो गुण’ के हैं तथा अंतिम तीन दिन ‘सत्वगुण’ के हैं। हमारी चेतना तमोगुण और रजोगुण से पार आकर अंतिम तीन दिनों में सत्वगुण में पुष्पित होती है। जब भी सत्वगुण जीवन को शासित करता है, विजय अनुगमन करती है। ये तीन आदि-गुण ब्रह्मांड की स्त्री-शक्ति माने जाते हैं।

नवरात्र के दौरान मातृ-शक्ति की पूजा से हम तीनों गुणों में सामंजस्य करके वातावरण में सत्व का उत्कर्ष करते हैं। इसीलिए असत्य पर सत्य की विजय के रूप में नवरात्र का उत्सव मनाया जाता है। वैदांतिक दृष्टिकोण से यह प्रत्यक्ष अनेकता पर संपूर्ण एकात्मकता की विजय है।

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ज्ञानी व्यक्ति के लिए समस्त सृष्टि जीवन है। जिस तरह बच्चे हर वस्तु में जीवन देखते हैं, उसी तरह ज्ञानी भी हर वस्तु में जीवन को पहचानता है। मातृ-शक्ति (देवी) अथवा विशुद्ध चेतना समस्त रूपाकारों में व्याप्त है और सारे नाम उसी के हैं। प्रत्येक नाम और प्रत्येक रूप में एक ही दैविकता को पहचानना ही नवरात्र का उत्सव है। इसलिए अंतिम तीन दिनों में जीवन और प्रकृति के सारे आयामों को सम्मानित करने वाली विशेष पूजाएं संपन्न की जातीं हैं।

काली प्रकृति की सर्वाधिक भयानक अभिव्यक्ति हैं। प्रकृति सौंदर्य का प्रतीक है, लेकिन इसका एक रूप भयंकर भी है। अद्वैत की स्वीकृति मन में समग्र संपूर्ण की स्वीकृति बनकर मन को शांत कर देती है। मातृ-शक्ति की पहचान केवल प्रकाशमयी बुद्धि नहीं, बल्कि भ्रांति भी है, वह केवल समृद्धि (लक्ष्मी) नहीं, बल्कि भूख और प्यास भी है- क्षुधा और तृष्णा।

 

 

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aarti, Navratri, Ram Navmi

श्री राम चंद्र कृपालु भज मन…


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श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं |

नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज पद कंजारुणं ||

 (हे मन! कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर | वे संसार के जन्म-मरणरूप दारुण भय को दूर करने वाले हैं, उनके नेत्र नव-विकसित कमल के सामान हैं, मुख-हाथ और चरण भी लाल कमल के सदृश हैं |)

कंदर्प अगणित अमित छबि, नवनील-नीरद सुंदरं |

पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरं ||

(उनके सौन्दर्य की छटा अगणित कामदेवों से बढ़कर है, उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुन्दर वर्ण है, पीताम्बर मेघरूप शरीरों में मानो बिजली के सामान चमक रहा है, ऐसे पावन रूप जानकी पति श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ |)

भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्यवंश-निकन्दनं |

रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नन्दनं ||

(हे मन ! दीनों के बन्धु, सूर्य के सामान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले, आनंदकंद, कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चंद्रमा के सामान दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर |)

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं |

आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खरदूषणं||

(जिनके मस्तक पर रत्न-जटित मुकुट, कानों में कुंडल, भाल पर सुन्दर तिलक और प्रत्येक अंग में सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं, जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं, जो धनुष-बाण लिए हुए हैं, जिन्होंने संग्राम में खर-दूषण को जीत लिए है )

इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं |

मम ह्रदय-कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ||

(जो शिव, शेष, और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं कानाश करने वाले हैं; तुलसीदास प्रार्थना करते हैं की वे श्री रघुनाथजी मेरे हृदयकमल में सदा निवास करें |)

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो |

करुना निधान सुजान सीलू सनेहु जानत रावरो ||

(जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुन्दर सांवला वर (श्रीरामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा | वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है |)

एहि भाँति गौरी असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली |

तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली |

(इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ ह्रदय में हर्षित हुईं | तुलसीदासजी कहते हैं – भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल लौट चलीं |)

जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि |

मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ||

(गौरी जी को अनुकूल जानकर सीता जी के ह्रदय में जो हर्ष हुआ वह कहा नहीं जा सकता | सुन्दर मंगलों के मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे |)

 

[audio http://hariomgroup.org/hariomaudio/paath/Shri-Ramchandra-Kripalu-Bhajman.mp3]

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